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कहानी उसकी जिसने राममंदिर के पत्थरों के लिए 30 साल दिए

कारसेवकपुरम से कुछ दूरी पर ही विश्व हिन्दू परिषद की कार्यशाला है। यह वही जगह है जहां पिछले 30 सालों से श्रीराम मंदिर के लिए पत्थर तराशने का काम चल रहा था। जब फैसला नहीं आया था, देशभर से हजारों लोग हर दिन कार्यशाला में सिर्फ पत्थरों को देखने के लिए आया करते थे। आज भी लोग पत्थरों को देखने आ रहे हैं, लेकिन कोरोना संकट की वजह से भीड़ कम है। 5 अगस्त को भूमिपूजन के कार्यक्रम को देखते हुए कार्यशाला में बड़ी संख्या में पुलिस फोर्स दिख रही है। साथ ही पीली टीशर्ट और कैप में दिल्ली की एक कंपनी के वर्कर दिखाई दे रहे हैं, जो तराशे गए पत्थरों की सफाई में जुटे हैं। फिलहाल पत्थरों पर नक्काशी का काम बन्द है। 3 मजदूर हैं जो पत्थरों में शाइनिंग का काम कर रहे हैं। 
80 साल के अन्नू सोमपुरा पिछले 30 साल से अयोध्या में हैं। कहते हैं कि यहां आने से पहले मैं अहमदाबाद में ठेके पर मंदिर बनाया करता था। सितंबर 1990 में राममंदिर का काम मिलने के बाद चंद्रकांत सोमपुरा ने इसकी देख-रेख के लिए मुझे चुना। उस समय मेरी उम्र करीब 50 साल रही होगी।
जब मैं अयोध्या पहली बार आया था। तब बड़ी छावनी में एक कमरे में रुका था। पत्थर आना शुरू हो गए थे। हमने कारीगर बुलाना चाहा लेकिन कोई आने को तैयार नहीं हुआ। फिर मैंने अपने दो बेटे और भाई को बुलाया। 4 लोगों ने मिलकर यहां काम शुरू किया था। 30 साल में इतना पत्थर तराश दिया है कि मंदिर का लगभग आधे से ज्यादा काम हो सकता है। जीवन के 30 साल देने पर मुझे कोई दुख नहीं है। मैं अब राम के लिए ही जीता हूं। यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे राम का काम देखने को मिला। मेरी पत्नी भी साथ ही रहती है। जबकि बेटे अहमदाबाद में अपना काम करते हैं। एक बेटा किसी प्राइवेट जॉब में है जबकि 2 बेटे पत्थर तराशने का ही काम करते हैं। अन्नू सोमपुरा के घर में एक लड़की और एक महिला भी दिखी। पूछने पर पता चला कि वह उनकी बेटी ज्योति और नातिन है। बेटी के पति रजनीकांत भी 2015 में कार्यशाला में पत्थर तराशने का काम करने आए थे। लेकिन 2019 में कार्यशाला में काम करते-करते उनकी मौत हो गयी। ज्योति कहती हैं कि पिता ने बगल में ही घर दिया था। काम भी बढ़ियां चल रहा था। 12 हजार रुपए तनख्वाह थी। पिछले साल एक दिन वह काम करने गए तो लौटे ही नहीं। मैं घर में काम कर रही थी। मुझे किसी ने बताया कि काम करते करते अचानक वह गिर पड़े हैं।
हम लोग जल्दी से उन्हें श्रीराम हॉस्पिटल ले गए। डॉक्टर ने बताया कि उन्हें हार्ट अटैक आया है। अगर साढ़े 3 घंटे निकल गए तो बच जाएंगे नहीं तो मुश्किल है। हम लोग इंतजार कर रहे थे लेकिन उन्होंने साथ छोड़ दिया और दुनिया से चले गए। बेटी रोशनी कहती है कि मैं उस वक्त स्कूल में थी जब 2 बजे लौटी तो पता चला पापा नहीं रहे। उस समय यकीन ही नहीं हो रहा था। लेकिन धीरे-धीरे उनकी यादों के सहारे जिंदगी कटने लगी है। ज्योति बताती हैं कि पिता न होते तो मेरी तो दुनिया ही उजड़ गई होती। हमारे हाथ में न कुछ रुपए थे न ही जमीन-जायदाद। अब पिता के साथ रहती हूं। मां की मदद करती हूं, काम चल रहा है। बेटी रोशनी बताती है कि वह इंटर में है। उनकी पढ़ाई का खर्च विहिप के नेता चंपत राय उठा रहे हैं। फीस, कॉपी किताब सब कुछ वही देखते हैं। रोशनी कहती है पिता जी पत्थर तराशते थे। मंदिर का नक्शा भी बनाते थे। उनके बनाए पत्थर अक्षरधाम मंदिर में भी लगे हैं। इसलिए अब मैं आईआईटी में जाना चाहती हूं और इंजीनियर बनना चाहती हूं, ताकि पापा का सपना पूरा कर सकूं।

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