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Prayagraj:-वो साहित्य में जिंदा रहना चाहते हैं:

किसी भी साहित्यिक कृति का पाठ निर्धारित करना श्रमसाध्य कार्य है। आलोचना और रचना में कौन बड़ा है यह विवाद चलता रहता है लेकिन आलोचना ही है जो रचना का विश्लेषण कर पाठक को रचना के मर्म तक पहुंचाता है। यह बातें वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. कन्हैया सिंह ने हिंदी विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय में  आयोजित एक संवाद कार्यक्रम में कही। डॉ. कन्हैया सिंह के जन्मदिन के अवसर पर छात्रों से उनके संवाद का कार्यक्रम आयोजित किया गया था। 
कार्यक्रम में हिंदी विभाग के प्राध्यापक अमितेश कुमार ने कहा कि डा. कन्हैया सिंह का मानसिक गठन आलोचक का है। वह पाठ निर्धारण जैसी कठिन विधा को अपनाते हैं और आलोचना के लिए राहुल सांकृत्यायन, हरिऔध जैसे ख्यात रचनाकारों को चुनते हैं तो रामचरित उपाध्याय जैसे कम ख्यात साहित्यकारों को भी। आपातकाल के दौरान लिखी जेल डायरी और ललित निबंध युवाओं के काम के लिए है। 
 डॉक्टर शिव कुमार यादव ने अपने वक्तव्य में कहा कि डॉक्टर सिंह अभिनंदन और सम्मान की संस्कृति से दूर अपने कर्म से अपनी पहचान बनाने वाले साहित्यकार हैं। आलोचक के तौर पर उनके वृहद् मूल्यांकन की आवश्यकता है। 
डॉ. लक्ष्मण प्रसाद  गुप्ता  ने कन्हैया सिंह जी के सूफी काव्य के अध्ययन पर प्रकाश डालते हुए कहा कि कन्हैया सिंह जी ने पदुमावती के रूप में पाठ संपादन करते हुए हिंदी समाज के लिए एक बड़ा कार्य किया है। और वह एक वैचारिक पृष्ठभूमि से जुड़े होते हुए बार बार जायसी के अध्ययन तक जाते हैं और जीवन के चार दशकों के अध्ययन का निचोड़ एक किताब में प्रस्तुत करते हैं और कई भ्रांतियों का निराकरण करते हैं। 
डॉ. कन्हैया सिंह ने खुद भी तुलसीदास, जायसी और संस्कृत रचनाओं के हवाले से अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में विस्तार बात किया और उदाहरणों के जरिए पाठालोचन की प्रक्रिया के बारे में छात्रों को बताया। 
जायसी पर पड़े भारतीयता के प्रभावों की भी उदाहरणों और विद्वानों के उद्धरणों के जरिए व्याख्या की। और समाज में एकता के लिए साहित्यकारों के द्वारा किए गए प्रयत्नों की जरूरत को भी रेखांकित किया जो मध्यकालीन कवियों ने किया था जिसकी प्रासंगिकता आज भी है।
कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए डॉ. बृजेश कुमार पांडे ने डॉ. कन्हैया सिंह जी के दीर्घ जीवन के लिए शुभकामनाएं देते हुए कहा कि उन्होंने अपना जीवन गुजार दिया साहित्य में और बड़ी जगहों पर जाने की बजाए अपनी कर्म भूमि पर रहने को प्राथमिकता दी। यह परंपरा भारतीय परंपरा के संतो की है जो अपनी पीठ पर रह कर ही साधानारत रहते हैं। कुंवर नारायण की कविता के हवाले से उन्होंने कहा कि उनकी साधना और इच्छा साहित्य में जिंदा रहने की है। और इस क्रम में वह आलोचना के मुखापेक्षि नहीं है लेकिन साहित्य में नजरंदाज करने की रणनीति है उसकी पहचान करने की जरूरत है।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. सुजीत कुमार सिंह ने किया और  धन्यवाद ज्ञापन डॉ. मीना कुमारी ने किया। डॉ. शिव कुमार यादव ने भी सभा को संबोधित किया। कार्यक्रम में डॉ. राकेश सिंह, डॉ. विनम्र सेन सिंह, डॉ. अमृता, डॉ. सुनील कुमार सुधांशु,  डा. जनार्दन, डा. अनिल सिंह डॉक्टर दिनेश कुमार, डॉक्टर अंशुमान कुशवाह आदि प्राध्यापकों समेत शहर के गणमान्य लोगों के साथ छात्र बड़ी संख्या में उपस्थित थे।

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