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Fear of missing out-FOMO

 FOMO- Fear of missing out(छूट जाने का डर) आज समाज का एक बड़ा वर्ग इस बीमारी की गिरफ्त में हैं,और आभासी दुनिया अर्थात सोशल मीडिया इसका सशक्त वाहक।

ज्ञान-विज्ञान और तकनीकी उन्नति ने समाज को भौतिक स्तर पर जितना दिया;सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर उससे कहीं बड़ी चुनौतियां भी हमारे समक्ष खड़ी की। कहीं सुना था "आधे दु:ख तृष्णा,तुलना हैं।" आज यही तुलना एक बड़े वर्ग में इस FOMO का सबसे बड़ा कारण बनती जा रहीं।हम अकेले रहना नहीं चाहते। हमें खुद के साथ एक अजीब-सी बेचैनी,एक अजीब-सा डर बना रहता हैं।खैर! मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं,तो किसी का साथ तो लाजमी है।पर क्या यह आकुलता,यह भय ,साथी की कमी तक सीमित हैं?शायद नहीं। फेसबुक,इंस्टा जैसी सोशल मीडिया साइट्स ने इस दायरे को बढ़ा दिया हैं। इस प्रसंग पर लिखते हुए मुझे वो बात याद आ रही है-"हम अपने दुःख से कम, दूसरों के सुख से ज्यादा दुखी हैं।" 

                      कोरोना काल के बाद सोशल मीडिया पर लोगों के रंग में भी बड़ा बदलाव आया हैं।इंस्टा हो या स्नैप हम अपने आपको अत्यंत लोकप्रिय,सुविधासम्पन्न,संघर्षी और जाने क्या-क्या बताने की होड़ में लगे हैं,और खुद को व्यूज और लाइक्स से तुष्ट करने की दौड़ के तो कहने ही क्या।इन सबके के बीच एक बीमारी कब हमारे अंत:करण में समा-सी गयी हमें इसका आभास भी हमें नहीं।कोई शिमला,मनाली की ट्रिप पर गया,हम ना जा पाएं।फलां ने आईफोन लिया,हम एंड्रॉयड में ही रह गये।फलां दोस्त के घर पार्टी हुई,सब गये,हम अपने काम में पड़े रहें।क्या खाक जिंदगी है ये! इससे अच्छा तो संन्यासी हो जाते। कहां उलझ गये गवर्मेंट जाब्स और एम.एन.सी. के चक्कर में।यह खीझ। अपने ग्रुप में हम ही झेल रहे।यह दर्द।और बंद कमरा,शहर का शोर,रौशन रातें और उनमें खुद को एकाकी पाते हम।यह वास्तविकता से ज्यादा तुलना के कारण हैं और इसका वाहक हैं सोशल मीडिया।

                    युवाओं में यह समस्या और भी प्रबल हैं एक सेटल्ड लाइफ की ख़्वाहिश के चक्कर में दिल्ली से लेकर इलाहाबाद,बनारस,पटना और इंदौर की गलियों में खुद को तपा रहे छात्र;किसी दूसरे के सेलेक्शन और ट्रेनिंग पर डाले फोटो से कितना विचलित होते हैं,यह बताने की जरुरत नहीं।हर बार टूटे मन से घर से पैसे लेना,शायद वे खुद को बोझ समझने लगते हैं.....खैर विषयांतर हो जायेगा।तो यह दिक्कत छात्र ही नहीं, नौकरीपेशा युवा भी उठाते हैं।काम का प्रेशर और छूट जाने का भय, कितना अकेला कर देता हैं।ट्रिप्स और पार्टीज़ में न होना,दिवाली में घर न जा पाना।यह सब वास्तविकता से ज्यादा आभासी जगत द्वारा दी दिक्कतें ज्यादा हैं। हमने तकनीकी को बनाया हैं,सारी खोजें मानव मन की उपज हैं पर अब यह हम पर ही हावी होती जा रही। हमें समझना होगा ये हमारी ही बनाती दुनिया हैं,चंद रील्स या फोटोज़ हमारी नियति नहीं तय करते।

                            सोचिए,न होने के दर्द में,जो हैं उसे खो तो नहीं रहें? .......


लिखना बहुत है,पर लिखने का कोई फायदा नहीं।सो

 बस..


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