अनकहे इतिहास की अनसुलझी दास्तां-फांसी इमली
निरभ्र वितान में आकस्मिक रुप से आये हुए बादल, घटाटोप की तरह उमड़ पड़े और मैं फांसी इमली के पास खड़ा इन्हें देख रहा था। चमचमाती बिजली की चमक के बीच, बादलों का छाया हुआ कुहासा और इमली के पेड़ पर कुछ आकृतियां दिख रही हैं।वो चीत्कार कर कह रही हैं- स्वाधीनता, स्वतन्त्रता,1857।
अचानक एक आकृति कराह उठी-उपेक्षा।उसका मंद स्वर जैसे इन चीत्कारों के बीच अंतस पर ठक से आ लगा।ये आकृतियां,ये इमली का पेड़,ये मूर्तियां। आखिर क्या हैं फांसी इमली का इतिहास? यहां जाने की योजना अचानक ही बनी थी। प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के दौरान इलाहाबाद के फांसी इमली का नाम राष्ट्रीय स्मारकों के रुप में मैंने पढ़ा था। किन्तु इस स्थल की अधिक जानकारी न होने के कारण या अपने व्यक्तिगत कारणों की वजह से यहां जा न सका था।अंशुमान सर की क्लास के बाद कई दिनों तक हम कहां जायें, कहां नहीं ये रोज सोचते और बस विचार कर रह जाते। रविवार रात विपिन चंद्रा को पढ़ते हुए, प्रथम स्वाधीनता संग्राम और फांसी इमली का विचार मन में खटका। मैंने आनलाइन माध्यमों से जानने का प्रयत्न किया तो देखकर निराशा हुई कि इस स्थल पर लेख तो हैं, किन्तु अपनी माटी के लिए फांसी पर चढ़ने वाले दीवानों के नाम विरले हीं हैं। वहां जाकर कुछ मिल जाएं ये सोचकर मैंने खोजबीन वहीं बंद कर दी।शाम को आशीष की गाड़ी पर मऊ और घोसी उपचुनाव की बातचीत करते हम सुलेमसराय स्थित फांसी इमली पहुंचे। प्रथमदृष्टया तो पता ही नहीं चला ये कोई राष्ट्रीय स्मारक हैं।आजाद की मूंछ पर ताव देती प्रतिमा और बगल में शहीद-ए-आजम की प्रतिमा,एक कंक्रीट की बनी तोप और क्रांतिकारियों की आत्माओं को खुद में समेटे वो इमली का पेड़, इसके अतिरिक्त वहां कुछ भी नहीं था।जिसे देखकर यह कहा जा सके की यह वहीं स्थल हैं जहां 1857 में लियाकत अली के नेतृत्व में निकले सैकड़ों आजादी के दीवानों को ब्रिटिश सरकार ने 3 घंटे 40 मिनट के मुकदमे में फैसला सुनाकर टांग दिया हों।
हां,यह स्थल उन छोटे दुकानदारों के लिए उपयुक्त था जो इसके आगे फूल,पर्स, घड़ी और न जाने कितनी ही वस्तुओं की दुकानें लगाए हुए थे।इन मूर्तियों के बीच और इमली के पेड़ से बांधकर उन्होंने अपने छोटे- छोटे तम्बू डाल रखे थें।हां,एक बोर्ड भी था जिस पर "याद करो कुर्बानी ~लाखों सलाम" लिखा था।पास ही स्थित रज्जन मूर्तिकला केन्द्र में एक भाई साहब से हमने यहां का इतिहास टटोलने का प्रयत्न किया तो उनसे बस इतना ही जान पायें की यहां 1857 के दौरान प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कूदे कई क्रांतिकारियों को फांसी दी गयी थी।
"इतनी जानकारी तो हमारे पास भी थी। झूठ्ठे गये यार पूछने"आशीष हम पर ही भड़क गए"आओं चाय पीते हैं।" वह आगे बढ़े।चायवाले राजू अंकल से भी हमने कुछ जानने का प्रयत्न किया। किन्तु निराशा ही हाथ लगी और चाय खत्म कर हम वहां से निकल आयें। रास्ते भर दोनों लोग बस हाइकोर्ट का आवासीय स्थल, इलाहाबाद पब्लिक स्कूल और एयरफोर्स स्टेशन देखते रहे,बोला कोई नहीं।
"अब"मेयो हाल चौराहे पर आखिरकार आशीष ने पहल की।
"अब का,चला कटरा।बैठ के कुछ खोजल जाई।"मैंने कहा।
कटरा में बैठे हमने विभिन्न वेबसाइटों की तलाश की तो दैनिक जागरण के रिपोर्टर अमरदीप भट्ट की एक रिपोर्ट मिली।इस रिपोर्ट के अनुसार गंगा-यमुना के दोआब में बसे इस स्थल पर केवल फांसी इमली ही नहीं, बल्कि जीटी रोड पर ऐसे 7 वृक्ष थे जिन पर क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ाया गया।समय के साथ 5 वृक्ष तो नहीं रहें लेकिन चौक पर स्थित नीम का वृक्ष और सुलेमसराय स्थित इमली का वृक्ष अभी भी उस क्रूरता की दास्तां बयां करते हैं।10 जुलाई,1857 को तत्कालीन इलाहाबाद में स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने वाले दयाल, खुदाबख्श, कल्लू, अमीरचंद को मात्र 3 घंटे 40 मिनट के मुकदमे में फैसला सुनाकर चौक स्थित नीम के पेड़ पर टांग दिया गया। क्षेत्रीय अभिलेखागार में 600 से ज्यादा लोगों के फांसी के आदेश अब भी सुरक्षित हैं। जिन्हें समय-समय पर 1857 के संग्राम में भाग लेने के अपराध के तहत इन सातों वृक्षों में से किसी न किसी पर फांसी पर चढ़ाया गया। हालांकि इन आदेशों में इनके नाम तो हैं पर उम्र और मुहल्ले का पता नहीं। रिपोर्ट की मानें तो जीटी रोड पर फांसी इमली के नाम से प्रसिद्ध पेड़ चौफटका में गढ़वा गल् र्स इंटर कालेज के सामने है। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि विद्रोह से बौखलाए अंग्रेजों ने कौशांबी से भी लोगों को गिरफ्तार कराना शुरू कर दिया था। जिन्हें कौशांबी की तरफ से पकड़ा जाता उन्हें अदालत में सजा सुनाने के बाद इसी इमली के पेड़ पर फांसी दी जाती थी। ज्ञानदत्त पाण्डेय के पेज मानसिक हलचल की मानें तो यहां अंग्रेज़ी सरकार ने काफी नर हत्याएं की थी जिसका जिक्र अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा की पुस्तक the last bungalow-writings of allahabad में प्रस्तावना लेख में इस प्रकार हैं-
अंग्रेजों के जमाने के इलाहाबाद के सिविल लाइंस के इलाके के पूर्ववर्ती आठ गांव हुआ करते थे।उनको अंग्रेजों ने 1857 के विप्लव के बाद सबक सिखाने के लिये जमींदोज़ कर दिया था।गदर का एक इतिहासकार लिखता हैं-"बच्चों को छाती से लगाये असहाय स्त्रियों को हमारी क्रूरता का शिकार बनना पड़ा।"और हमारे एक अफसर ने बताया- एक ट्रिप मैंने बहुत एंज्वाय की।हम स्टीमर पर सिक्खों और बंदूकधारी सैंनिकों के साथ सवार हुए।हम शहर की ओर गये। सामने,दाएं-बाएं हम फायर करते गये,तब तक जब तक कि 'गलत' जगह पर पहुंच नहीं गये।जब हम वापस किनारे पर लौटे,तब तक मेरी दुनाली सेही कई काले लोग खत्म हो चुके थे।"
हाय ऐसी क्रूरता!आज ये स्थल उपेक्षित हैं।स्त्रोतों की मानें तो किसी समय यहां देश के प्रथम प्रधानमंत्री भी आयें थे। किन्तु ये स्थल अब भी अपने उद्धार की राह ताक रहा हैं। हाइकोर्ट के वकील और समाजसेवी राम सिंह ने पहल कर यहां कुछ प्रतिमाएं तो बनवाई हैं। किंतु सरकारों की उपेक्षा का दंश आज भी यह स्मारक सह रहा हैं।आज हम कहीं भी जाने, कहीं भी रहने,विचारों को प्रकट करने के लिए स्वतंत्र हैं किंतु इस आजादी की कीमत जो हमारे पूर्वजों ने चुकायी हैं,वो अतुल्यनीय हैं और आज भी वो इमली का पेड़ सीना ताने उनकी गाथाएं कह रहा हैं।
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